Saturday 14 January 2017

Story of Ghughutiya festival

उत्तरैणी मोक्ष का द्वार---

1921 में इसी त्योहार के दौरान बागेश्वर में हुई प्रदेश की अनूठी रक्तहीन क्रांति, कुली बेगार प्रथा से मिली थी निजात!

घुघुतिया के नाम से है पहचान, काले कौआ कह कर न्यौते जाते हैं कौओं को और परोसे जाते हैं पकवान!
दुनिया को रोशनी के साथ ऊष्मा और ऊर्जा के रूप में जीवन देने के कारण साक्षात देवता कहे जाने वाले सूर्यदेव के धनु से मकर राशि में यानी दक्षिणी से उत्तरी गोलार्ध में आने का उत्तर भारत में मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाने वाला पर्व पूरे देश में अलग-अलग प्रकार से मनाया जाता है। पूर्वी भारत में यह बीहू, पश्चिमी भारत (पंजाब) में लोहणी और दक्षिणी भारत (कर्नाटक, तमिलनाडु आदि) में पोंगल तथा देवभूमि उत्तराखंड में यह उत्तरायणी के रूप में मनाया जाता है। उत्तराखंड के लिए यह पर्व न केवल मौसम परिवर्तन के लिहाज से एक ऋतु पर्व वरन बड़ा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक लोक पर्व भी है।
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में मकर संक्रांति यानी उत्तरायणी को लोक सांस्कृतिक पर्व घुघुतिया के रूप में मनाए जाने की विशिष्ट परंपरा रही है। इसी दिन यानी 14 जनवरी 1921 को इसी त्योहार के दिन हुए एक बड़े घटनाक्रम को कुमाऊं और उत्तराखंड प्रदेश की ‘रक्तहीन क्रांति” की संज्ञा दी जाती है, इस दिन कुमाऊं परिषद के अगुवा कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पांडे के नेतृत्व में सैकड़ों क्रांतिकारियों ने कुमाऊं की काशी कहे जाने वाले बागेश्वर के ‘सरयू बगड़” (सरयू नदी के किनारे) में सरयू नदी का जल हाथों में लेकर बेहद दमनकारी गोर्खा और अंग्रेजी राज के करीब एक सदी पुराने कुली बेगार नाम के काले कानून संबंधी दस्तावेजों को नदी में बहाकर हमेशा के लिए तोड़ डाला था।
यह परंपरा बागेश्वर में अब भी राजनीतिक दलों के सरयू बगड़ में पंडाल लगने और राजनीतिक हुंकार भरने के रूप में कायम है। इस त्योहार से कुमाऊं के लोकप्रिय कत्यूरी शासकों की एक अन्य परंपरा भी जुड़ी हुई है, जिसके तहत आज भी कत्यूरी राजाओं के वंशज नैनीताल जिले के रानीबाग में गार्गी (गौला) नदी के तट पर उत्तरायणी के दिन रानी जिया का जागर लगाकर उनका आह्वान व परंपरागत पूजा-अर्चना करते हैं।
चंद शासन काल व भगवान राम से भी से जुड़ी है घुघुती व मकर संक्रांति मनाने की परंपरा
 एक पौराणिक मान्यता के अनुसार कुमाऊं के लोकप्रिय चंदवंशीय राजवंश के राजा कल्याण चंद को बागेश्वर में भगवान बागनाथ की तपस्या के उपरांत राज्य का इकलौता वारिस निर्भय चंद प्राप्त हुआ था, जिसे रानी प्यार से घुघुती कहती थी। राजा का मंत्री राज्य प्राप्त करने की नीयत से एक बार घुघुतिया को शडयंत्र रच कर चुपचाप उठा ले गया। इस दौरान एक कौए ने घुघुतिया के गले में पड़ी मोतियों की माला ले ली, और उसे राजमल में छोड़ आया, इससे रानी को पुत्र की कुशलता का समाचार मिला। इस खुशी में उसने संदेशवाहक कौए को तरह-तरह के पकवान खाने को दिए और अपने पुत्र का पता जाना। तभी से कुमाऊं में घुघुतिया के दिन आटे में गुड़ मिलाकर पक्षी की तरह के घुघुती कहे जाने वाले और पूड़ी नुमा ढाल, तलवार, डमरू, अनार आदि के आकार के स्वादिष्ट पकवानों से घुघुतिया माला तैयार करने और कौओं को पुकारने की प्रथा प्रचलित है। बच्चे उत्तरायणी के दिन गले में घुघुतों की माला डालकर कौओं को ‘काले कौआ काले घुघुति माला खाले, ले कौआ पूरी, मकें दे सुनकि छुरी, ले कौआ ढाल, मकें दे सुनक थाल, ले कौआ बड़, मकें दे सुनल घड़़…” आदि पुकार कर कौओं को आकर्षित करते हैं, और प्रसाद स्वरूप स्वयं भी घुघुते ग्रहण करते हैं। कौओं को इस तरह बुलाने और पकवान खिलाने की परंपरा त्रेता युग में भगवान श्रीराम की पत्नी सीता से भी जोड़ी जाती है। कहते हैं कि देवताओं के राजा इंद्र का पुत्र जयेंद्र सीता के रूप-सौंदर्य पर मोहित होकर कौए के वेश में उनके करीब जाता है। राम कुश (एक प्रकार की नुकीली घास) के एक तिनके से जयेंद्र की दांयी आंख पर प्रहार कर डालते हैं, जिससे कौओं की एक आंख हमेशा के लिए खराब हो जाती है। बाद में राम ने ही कौओं को प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन पवित्र नदियों में स्नान कर पश्चाताप करने का उपाय सुझाया था। इस तरह उत्तरायणी हरेला की तरह कुमाऊं का प्रकृति व पर्यावरण से जुड़ा एक और त्योहार भी है।
सूर्य उपासना का पर्व भी है उत्तरायणी,

कुमाऊं में उत्तरायणी के दिन लोग सरयू, रामगंगा, काली, गोरी व गार्गी (गौला) आदि नदियों में कड़ाके की सर्दी के बावजूद सुबह स्नान-ध्यान कर सूर्य का अघ्र्य चढ़ाकर सूर्य आराधना करते हैं, जो इस त्योहार के कुमाऊं के भी देश भर के छठ सरीखे त्योहारों की की तरह सूर्य उपासना से जु़ड़े होने का प्रमाण है। तत्कालीन राज व्यवस्था के कारण कुमाऊं में इस पर्व को सरयू नदी के पार और वार अलग-अलग दिनों में मनाने की परंपरा है। सरयू पार के लोग पौष मासांत के दिन घुघुते तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को चढ़ाते हैं। जबकि वार के लोग माघ मास की सक्रांति यानि एक दिन बाद पकवान तैयार करते हैं, और अगले दिन कौओं को आमंत्रित करते हुए यह पर्व मनाते हैं।
भीष्म पितामह ने भी इसी दिन अपने प्राणों का त्याग किया था l

सभी सामाजिक क्रांतियों का आगाज भी इसी दिन होता हैl अतएव इस वर्ष  भी पूरे हर्षोल्लास के साथ इस पर्व को  आपसी प्रेम एवं बंधुत्व के साथ मनाएँ

सभी स्वजनों को घुघुतिया पर्व की अग्रिम शुभकामनाएँ 🙏 🌹

Disclaimer- The above post is not written by me. Just including the same in my blog for preserving valuable stories and information related to our kumaoni culture.

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